FOR THE WELFARE OF THE WORLD
Lord Shiva drinks venom for the welfare of the rest of the world "I now wish to improve your understanding about the Shiva conscious. Snakes do not bite each other for survival.They are shunned on wrong Notion.lethal, as their bites can be,they are rarely an aggressor tribe.They only use their fangs if grossly intruded upon.My chief adornment is the King Cobra.One, who has learnt by mere posture to ward off the eveil of malafide intrusion." The snake observed that even Shiva’s trident was only parked beside Him. "My snakes never actually Bite venom to their creator,they only discharge roles that are alloted to them,sometimes vomiting venom when they were,in fact aiding the production of Ambrosia. I want you to understand this well before you are turned to man again. For the Shiva conscious man has a greater task than the Shiva conscious snake, he must partake a little venom spilled by the Shiva conscious snake. Remember one last thing about the wandering snakes," said the Yogi with a diamond Gaze,”they always reach their homes in their woods where no one distrubs the harmony of others. They do not just lose skins and get nowhere.They outgrow skins and lose them along the way. They do not lose the way itself." { From The Yogi and the snake by Shail Gulhati, 1995. Shail Gulhati: Shiva and Mysticism.. }
a very rough translation : इस पुस्तक में भगवन शिव अपने भक्त ( एक सांप) को कहते हैं की शिव के चेहते कभी भी दूसरों को जान भूज कर हानि नहीं पहुन्चाहते. विशेष रूप से सांप कभी किस्सी को बिल्ला कारन काटते नहीं.यदि समुन्द्र मंथन के समय भी उनके सांप वासुकी ने विष उगला तो वोह भी अमृत मंथन के प्रयत्न में हुआ शिवजी का प्रमुख नाग तोह केवल फुंकार से ही दुष्ट लोगों को डराना सीख गया है. स्वयं शिवजी का त्रिसुल भी प्रहार की मुद्रा में नहीं अपितु उनके समीप भूमि में सावधान खड़ा रहता है. इस्सी प्रकार शिवजी के सभी भक्त हानि नहीं बल्कि दूसरों की सहायता में लीनं रहते हैं . शिव के मानव भक्तों का कार्य शिव के साँपों से भी अधिक है: उन्हें अपने स्वामी शिव के प्रकार विषपान करना पडता है क्योंकि उनका कर्त्तव्य शिव के साँपों से अधिक है. इस प्रकार अपने साँपों के चरित्र को अच्छा बता कर शिव जी फिर अपने भक्त को इस पुस्तक में यह कहते हैं की सांप कभी अपने मार्ग दर्शन को अपनी पुराणी चमड़ी की प्रकार गुमाते नहीं अपितु चमडियाँ गुमाते गुमाते भी अपने मार्ग पर चलते रहते हैं जब तक वेह अपने घर लौट न जायें. इस्सी प्रकार शिव भक्तों को जनम जनम अपने लक्ष्य की और जाना है, और वोह लक्ष्य है आत्मबोध और दिव्या दृष्टी. ॐ नमः शिवाय !
No comments:
Post a Comment